
| هَذا... |
| أوَ النهرُ المُقدّسُ |
| كي أكُونْ...! |
| هذا ... |
| هوَ الطَوفانُ |
| قالَ أَبي الحَرون...! |
| هَذا الذي يَأتي |
| على ظَهرِ الغيوبِ |
| بِنورِه الدُّرِّيِّ |
| وشوَشَ في سُكونِْ! |
| مَا صدّقَ الوَاشونَ |
| زَيفَ نُبوءَتي |
| قالوا الذي أسْرى |
| على بَرْقِ الغيومِ |
| وَغَابَ في |
| شَفَقِ المَنونْ! |
| مَا أدرَكَ الغَاوونَ |
| سِحرَ تَميمتي |
| قالوا الذي |
| حَاجَ الطيورَ |
| وسَامَرَ الأفْعى |
| وهَامَ من الفُتونْ! |
| تاللهِ لنْ أقوَى |
| على صَبري |
| وَلنْ آوِي |
| الى جبلِ المُكون! |
| واللهِ لُذتُ |
| بِسَاتِري عنْكُمْ |
| وَقَد جُنَّتْ عَصَافيري |
| وأُسقِطَ في يَدي |
| أَنَّي أُسَاقُ الى الجنون! |
| يا بوقيَ المَثقوبَ |
| جِبتُك التُقَى |
| جُبي التَمني |
| هِيتَ لك... |
| غَلَّقتُ أَبوَابي |
| وأردَيتُ الظنون! |
| يا خطويَ المَحجَوبَ |
| لم أقوَى على |
| طولِ المَسير |
| وهِيتَ لكْ... |
| روحِي ورَِيحاني |
| ودمعتُنا الهَتون! |