
| فلِماذا.. |
| في شوارعِ الأحلامِ |
| بالذَّاتِ على |
| تلكَ الشوارعِ، |
| أستبيحُ كهولتي |
| ويحفُّني ألقَ الشبابْ؟! |
| ولماذا كلَّما أهربُ |
| من ذاتي لذاتي |
| تصطفيني الرُّوحُ |
| تلقيني على |
| قِممِ السَّحابْ؟! |
| يا إلهي... |
| ألِهذا صافحتْني |
| الأنجمُ الزَّرقاءُ |
| دثَّرَني مِنْ |
| البردِ الضَّبابْ؟! |
| ولماذا كلما |
| أرخيْتُ ظنوني |
| جادَ عقلي وجنوني، |
| وإرتوى حقلي اليَبابْ؟! |