
| يا بلادي.. |
| أنتِ في قلبي |
| وفي القلبِ دموعٌ |
| والتياعٌ وحنينْ! |
| يا بلادي.. |
| أنتِ ليلٌ |
| ونجومٌ وأنينْ! |
| يا بلادي.. |
| أنتِ نيلٌ |
| وورودٌ وحنينْ! |
| مَالَ قلبي مرةً |
| ذاتَ اليمينْ |
| وتهاوى الشَّكُّ |
| يَذروهُ اليقينْ! |
| كم تحمَّلتُ |
| الليالي ذارفاً |
| وصرفتُ العمرَ |
| في الأسفارِ |
| والمنفى الحزينْ! |
| غيرَ أنِّي لستُ |
| هيَّابَ الوَغى |
| طالما سرتُ وأحبابي |
| على الدَّربِ الرَّصينْ! |
| ليتَني صرتُ |
| رسولاً للمَنافي |
| ريثما أرسمُ للعالمِ |
| أحلامَ الجنينْ! |
| عَجَبًا لِهذا الشوْقِ |
| يأتيني ولا أقوى |
| على هجرِ السِّنينْ! |
| عَجَبًا لهذا الحُبِّ |
| يشجيني بأنغامٍ |
| كأجراسِ الرَّنينْ! |
| مثلما عاهدتُّ نفسي |
| أن أُوَارَى في ثَرَاكِ، |
| لم أبالي بالطغاةِ الحاكمينْ! |
| غيرَ أنِّي قد نُفِيتُ |
| بأمرِ والٍ، |
| قاسي القلبِ ضنينْ! |
| رغمَ أنِّي قدْ وهبتُ |
| العمرَ والأبناءَ حتَّى |
| يصدَحُ الحقُّ المبينْ! |
| وتناسيْتُ جراحي |
| ريثما أحفرُ |
| في الصَّخْرِ قُبُورًا |
| للولاةِ الظَّالمينْ! |
| وتأسَّيْتُ بنخلٍ |
| منْ بلادي |
| ريثما أعزفُ |
| للغيدِ وللصبيةِ |
| ألْحأنا على |
| الوترِ الحزينْ!! |