
| لا شيْءَ يوقظُني |
| من الأحلامِ |
| إلا قبرُ أُمِّي |
| صامتًا ما بينَ |
| أوكارِ الحمامْ! |
| كانتِ الأيامُ حُبلَى |
| حينَ جاءتْني |
| وساقتْني إلى |
| ظُللِ الغمامْ! |
| يا قبرَها |
| لمْ أحتمِلْ ظلِّي |
| الذي لازمني، |
| منذُ أنْ كنتُ غريرًا |
| لم أجدْ غيرَ السقامْ! |
| منذُ أنْ فارقتَني |
| يا ظلَّ أُمِّي |
| طارتِ الأحلامُ |
| عن داري |
| وأقلقني المنامْ! |
| يا قبرَ أُمِّي لا تدعْ |
| جيشَ العناكبِ |
| تنبشُ الشَّاهدَ |
| والسعفَ الذي |
| يحمي المقامْ! |
| كمْ تمنَّيتُ ضريحًا قربَها |
| كيْ أُناجيها وأسقيها |
| حكاياتِ الغرامْ! |
| صارتِ الأيامُ |
| بعدَكِ علقمًا |
| ضاعتِ الأحلامُ |
| في جُبِّ الحطامْ! |