
| يَا هَمْسَهَا الْمُنْسَابَ |
| فِي صَمْتي |
| شَكَوْتُكَ إتَّئِدْ |
| هَذَاالْهَوَى سِرٌّ |
| تَعَلَّقَ عِنْدَ |
| أسْتَارِ الْغَمَامْ! |
| قَدْ قُلْتُ لِلَّيْلِ الْمُمَدَّدِ |
| في دَمِي |
| يَا لَيْلُ كُنْ |
| بَانَتْ سَفَائنُ عِشْقِهَا |
| تَختالُ في بحرِ الهُيامْْ! |
| يَا هَمْسَهَا الرَّقْرَاقَ |
| يَسْري في |
| ثَنيَّاتِ الْحَريرِ |
| فَيَنْثَني خَصْرُالْكَلامْ! |
| مَا كُنْتُ أُدْرِكُ |
| أنَّ هَمْسَكِ |
| يُشْعِلُ الْمَخْبُوءَ |
| في صَمْتي |
| فَيَرْتَبِكُ الْكَلامْ! |
| لَمْ أحْتَمِلْ |
| حَتَّى أبُوحَ |
| عَلَى الْمَلأ |
| سِرَّالْهَوَى، |
| فَيَدُ الْحَريرِ عَلَى يَدِي |
| وَالْبَحْرُ مِنْ خَلْفي، |
| وأسْرَابُ الْحَمَامْ! |
| رَبّتَتْ عَلَى |
| خَدِّ الأزاهرِ |
| فارْتَوَى خَدِّي، |
| رَشَفْتُ الْعِشْقَ |
| مِنْ وُدٍّي |
| فأسْكَرَني الْمُدَامْ! |
| ذَرَفَتْ صَبَابَاتِ الْهَوَى |
| في أدْمُعٍ |
| فَثَمِلَتُ حَتَّى |
| جَفَّتِ الأنْهَارُ |
| وَانْتَحَرَ الْغَمَامْ! |
| يَا لَيْلَهَا اشْهَدْ |
| بَأنِّي قَدْ |
| مَزَجْتُ عُطُورَهَا |
| وَخلقْتُ مِنْ عِطري |
| بَنَفْسجَةَ الْغَرَامْ! |
| يَا لَيْلَهَا اشْهَدْ |
| بَأنِّي قَدْ |
| نَزَعْتُ خِمَارَهَا |
| فَرَأيْتُ نُورَالْبَدْرِ |
| مُتَّكِئًا عَلى |
| وَردِ الظلامْ! |
| سُبْحَانَكَ اللَّهُمَّ إنِّي |
| قَدْ عَشِقْتُ صَبيَّةً |
| وَصَبَابَتي تُفْضِي |
| إلَى الْمَوْتِ الزُّؤَامْ! |
| سُبْحَانَكَ الْلَّهُمَّ إنِّي |
| قَدْ خَتَمْتُ رِسَالَتي |
| وَهَجَرْتُ أحْبَابي |
| وَصُمتُ عَنِ الْكَلامْ! |