
| هذَا الذي بيني |
| وبينكِ ارتعاشاتٌ |
| تجىءُ وتحتويني! |
| دَلَفَ المساءُ |
| على المساءْ |
| وأنتِ تختبرُ |
| الدُّروبَ لتصطفيني! |
| ألَقٌ مِنْ الأسحارِ |
| يأخُذُني إليكِ |
| كما العبير |
| ويرتضيني! |
| ليتَ المسافاتِ المضيئةَ |
| تستبينُ ملامحي |
| ويسُوقُني |
| خطوي اليكِ |
| وتُبصريني! |
| إنَّ الذي بيني وبينكِ |
| وردةٌ مسقيةٌ |
| برحيقِ شاعرْ! |
| إنَّ الذي بيني وبينكِ |
| صاغَهُ الشعرُ الذي |
| صبغَ المشاعرْ! |
| هذا الذي بيني وبينكِ |
| قاله العُشَاق، |
| قالوا: |
| سلسبيلُ الحبِ |
| في تغريدِ طائرْ ! |
| هذا الذي بيني وبينكِ |
| قاله الحُكماءُ، |
| قالوا: |
| إلْتِمَاعُ النورِ |
| في صدرِ الجواهرْ ! |
| هذا الذي بيني وبينكِ |
| قاله الثُّوَّارُ، |
| قالوا: |
| إكتمالُ البدرِ |
| في جبهةِ ثائرْ! |
| إنَّ الذي بيني وبينكِ |
| قالهُ الرُّهبانُ، |
| قالوا: |
| شهقةُ القدِّيسِ |
| في حضرةِ حائرْ ! |