
| هلْ أنا هابيلُ |
| أمْ قابيلُ |
| أم قَدحُ المُعَنَّى؟! |
| أو ربَّما... |
| شطحةُ شعرٍ |
| صاغها الجِنُّ وغنَّى! |
| او كما زاد قريني: |
| نمنماتٌ ونقوشٌ |
| جادها الغيثُ فجنَّ! |
| لا يَهُمُّ..! |
| لا يَهُمُّ الآنَ |
| إنْ جئتُ على |
| ظهرِ الأجنّة! |
| فاصْلبوني يا رفاقي |
| اصلبوني فوقَ |
| هاماتِ المظنَّة! |
| أو ذروني كرمادٍ |
| للرِّياح المُرجحنَّة! |
| إنَّهُ شيطانُ شِعرِكَ |
| ليتَ شِعري |
| أيُّها القدحُ المعنَّى! |
| أين أُمِّي؟ |
| أين أُمِّي، |
| تقرعُ الناقوسَ |
| تدمي كفَّها |
| وتئنُّ أنا؟! |
| أينَ أقراني |
| ومَنْ شادوا |
| قصورَ الليلِ |
| حينَ أمِنَ منا؟! |
| بلْ أينَ أحبابُ الطريقْ، |
| ثغورُهم كاللؤلؤِ المنثورِ |
| حينَ أظن ظنَّا! |
| شرشفاتُ الرَّملِ |
| آهٍ... |
| أينَ رملي وحُصُوني، |
| أينَ خَبَّأتُ |
| خيولي بالدُّجنَّة؟! |
| يا لهذا اللَّيل |
| يرزح بينَ |
| مطرقةٍ وسِندانٍ وأنَّة! |
| إنَّنا نشكو اليكَ |
| أميرَنا وتضِن ضنَّا؟!! |
| إنَّهُ قابيلُ كالجلاَدِ |
| ينصبُ في تُخُومِ الفجرِ |
| مشنقةً مِنْ |
| الشعرِ المُغنَّى! |
| يا ليلى ليلك جنّ |
| وخيالي سكنَ الجَنَّة! |
| يا ليلى ليلك جنّ |
| أحبابُكِ أهلُ الجَنَّة! |
| يا ليلى ليلك جنَ |
| وصباحُكِ عبقُ الجَنَّة! |
| يا ليلى ليلك جنّ |
| ولباسي ثوبُ الجَنَّة! |
| يا ليلى ليلك جنّ |
| ونبيذُك خَمْرُ الجَنَّة! |