
| شُكْرًا |
| لِحَاكِمِنَا الْمُبَجَّلِ، |
| ذِقْنُهُ كَبَهَاءِ |
| شَارِبِهِ الْمُعَمَّدِ |
| مِنْ دمائي! |
| شُكْرًا |
| لِمَنْفَايَ وَأُمِّي، |
| قَبْرُهَا الصَّامِتُ قَبْري، |
| قُبَّتي وسَمَائي! |
| شُكْرًا |
| لِشُرْطِيٍّ تَأَبَّطَ |
| سُوءَ نَظْرَتِهِ |
| فَأجْفَلَ حينَ |
| رُؤْيَتِهِ حِذَائِي! |
| شُكْرًا |
| لِشَيْطَانيَ الْمُوَسْوِسِ، |
| حينَ ضَاقَ الشِّعْرُ، |
| وَسْوَسَ فِي دِمَائي! |
| شُكْرًا |
| لأوْطَانٍ دَعَتْني |
| كَيْ أَنامَ الْلَّيلَ |
| عِنْدَ الْمَخْفَرِ السِّرِيّ |
| هذا الّليلُ، |
| زُلْزِلَ من هجَائي! |
| شُكْرًا |
| لِلَيْلَيَ وَاهِبِ الأشْعَارِ |
| يَا للشِعرِ |
| أبْرقَ مِنْ بَهاءِ! |
| شُكْرًا |
| لِثَوْرِيٍّ تَهَجَّدَ |
| عِنْدَ بَابِ السِّجْنِ، |
| صِرْتُ سَجينَهُ، |
| وَبكيتُ باسْمِ الشَّعْبِ |
| أبْكَيْتُ سَمَائي! |
| شُكْرًا |
| لأفْرَاحي وَدَنِّي، |
| ثُمَّ دَرْبِ السَّائرينَ |
| عَلَى الصِّرَاطِ، |
| وَغَايَتي في الْفَجْرِ |
| أنْ يُرْفَع نِدَائي! |
| شُكْرًا |
| لِدَمْعِ الْعَاشقيْنِ |
| إذَا هُمَا |
| عَجَبًا نهارُ الدَّمْعِ |
| يغْرُب في إنَائي! |
| شُكْرًا |
| لِمَنْ زَرَعُوا الْمَحَبَّةَ |
| في فُصُولِ الشَّوْقِ |
| وَاحْتَسبوا الْمَوَدَّةَ |
| مِنْ حَيَاءِ! |
| شُكْرًا |
| لأُمِّي حِينَ |
| بَارَكَتِ السَّمَاءُ |
| فَزَغْرَدَتْ للطَّيْرِ، |
| هَذَا الطَّيْرُ |
| ألهَمَني غِنَائي! |
| شُكْرًا |
| لِوَالِدِنَا الْمُبَجَّلِ* |
| مُسْرِعًا كَالْبَرْقِ |
| نَامَ عَلَى الصَّلاةِ |
| فَمَاتَ |
| أوْرَثَني شَقَائي! |
| *تُوُفِّيَ وَالِدُنَا وَهُوَ عَلَى سجَّادَةِ الصَّلاةِ وَكُنْتُ وَقْتَهَا لا أعْرفُ مَعْنَى الْمَوْت. |