
| يا رائعة |
| يا رائعةْ |
| يا أجمل الأحلام |
| يا سعد الوجوه الضائعةْ |
| بسمائك الآفاق تدنو |
| ثم تهمس وادعهْ |
| ويرفرف البركان |
| في كفَّيك |
| تستلقي بحبات النقاء مدامعهْ |
| والحلم من فلك الرؤى |
| يرنو إليك كراهبٍ |
| متضرعٍ |
| في صومعةْ |
| ويراقب الدنيا |
| تطلُّ بمقلتيك |
| وبحره المجنون |
| يسكن قوقعةْ |
| الشمس تخرج |
| من نقائك ساطعةْ |
| والصمت يطلع |
| من هدير الزوبعةْ |
| يا وردة منسوجةً بالعشق |
| ترشف من رحيق الحب |
| كل روائعهْ |
| إني رأيتك في المنام أميرةً |
| في مجد عرشك |
| تجلسين تواضعا |
| ورأيت وجهك |
| في نقاء الصبح |
| يطلع من زوايا الحلم |
| يسمق رونقاً بدوافعهْ |
| ما كان صحوك |
| فوق آفاق انتمائي صدفة |
| أو لحظة منسية |
| خلف الغمامة |
| لم تكن متوقعة |
| بل كان وعداً |
| غيّر الرؤيا |
| وتوقيع القصيدة |
| والضحى |
| وتوابعهْ |
| وفجاءة تتكلمين |
| فتصمت الدنيا |
| ويأتلق الحنين |
| وتسقط الغيماتُ |
| ينشطر الأنين |
| وكل أشلاء الجراح القابعة |
| وتهمسين فنستكين |
| وتنظرين |
| فيرتمي |
| حضن الوجود |
| بساعديك كقبُّعة |
| شئٌ بعمقك يحتويني |
| شئ يجاذبني السكون |
| فاسمعهْ |
| فيك الشجون جريئة ألوانها |
| فيك الجمال الحق يصرخ |
| من عميق تشبّعهْ |
| فيك السماحة |
| والوداعة مُترعةْ |
| فيك الظلال |
| تحاور الأضواء همساً |
| ثم تخضع راكعة |
| فالقدرة الكبرى |
| تجلّت واسعة |
| يا مُبدعةْ |
| سيجيش وعد الصدق يوماً |
| سوف تحترق الهواجس |
| والطيوف المفزعةْ |
| فالناس في وطني |
| تناسوا أن وعد الله حق |
| والمشيئة قاطعةْ |
| فتحاوروا كذباً و غابوا |
| عن وصال الصدق |
| تاهوا في جحيم الشائعةْ. |